जिस रफ्तार से हम जी रहे है अपने आपको पीछे छोड़ते जा रहे है इसी व्यथा को बंया करः रही मेरी रचना
आदमी आदमी ना रहा
फिरते हैं शब्द भी, अपने अर्थ के लिये
रिश्तों की मिठास, अट्टहास बन गई
उलझा है आदमी ,
शब्दों के जाल मे ऐसे,
सहेजता कुछ नही उड़ेलता है ,बस
हर त्यौहार फीका -फीका सा लगता है
दिखावा ही आदमी की पहचान बन गई
कुदरत ने बदला कुछ नही,
बस हम इंसानों की नियत बदल गई
रिश्तों की जिम्मेदारी
अब आफत बन गई
दिखावा और बेईमानी
अब शराफत बन गई
देखो अपनी संस्कृति को
पश्चिमी सभ्यता छल गई
आदमी आदमी न रहा
मशीन बन गया
आदमी का काम मशीन
और मशीन का काम आदमी
कर रहा
देखो कैसे जीने के नाम पर
अपने आपको छल रहा
और राजनीति के नाम पर आज भी देश बंट रहा !
✍️संगीता दरक माहेश्वरी
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