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आम आदमी हूँ मैं

सबसे सरल और सीधा लेकिन मुश्किलों भरा जीवन जीने वाला आम इंसान ।
लेकिन उसे  अपने आप को हरेक परिस्तिथियों में खुश रखना आता है यही सब मेरी रचना में पढ़िये.....

         आम आदमी हूँ
जानता हूँ, जीने का हुनर तो
मरने की कारीगरी भी आती हैं।
जीएसटी और नोटबंदी को
त्यौहार सा मना लेता हूँ।
दिये हो तो रोशन कर देता हूँ
वरना ,अंधेरों से काम चला लेता हूँ।  आम आदमी हूँ,ख्वाहिशें
बेचकर गुजारा कर लेता हूँ।
उलझता नहीं मैं अच्छे दिनों की
प्यास में।
जानता हूँ, बरसो बैठा रहा
मेरा राम भी इसी आस  में ।
काले और सफेद(धन)
के चक्कर में नहीं पड़ता ,
मिट्टी में सोना उगाना जानता हूँ।  
जानता नहीं मैं, राजनीति के
दाँव पेच लेकिन 56 इंच का
सीना लिए पहरेदारी करता हूँ
सीमा पर ।
आम आदमी हूँ साहब जीना जानता हूँ
आता है मुझे, अपनी ख्वाहिशों
पर पैबंद लगाना ।
देता हूँ बच्चों को आसमाँ उड़ने के
लिए पर , बंदिशें आरक्षण
की भी जानता हूँ।
सामान्य सी मुस्कान लिए आरक्षण
का दर्द भी झेल जाता हूँ।
हँसता हूँ हर पल जिंदगी जी लेता हूँ। जानता हूँ , जीने का हुनर तो
मरने की कारीगरी भी आती है मुझे !!!
               ✍️संगीता दरक माहेश्वरी
                     सर्वाधिकार सुरक्षित

वक्त हूँ. Wakt hu , i am the time

 वक्त ,समय जी हाँ बहुत कीमती है आजकल किसी को भी समय नही है हर कोई कहता है कि समय नही है  अपने अपनों के लिये भी वक्त नही निकालते है और कभी बेवजह भी खर्च कर देते है ।
पढ़िये मेरी रचना 
   
     वक्त हूँ मैं

वक्त हूँ
वक्त हूँ ,यूँ बेहिसाब खर्च न किया कर,
    कभी अपनों से मिलकर ,
   अपनी खबर भी लिया कर ।
ख्वाईशो में अपनेें,
सपने उनके भी मिला लिया कर ,
देखकर जो तुझे जीते है,
कभी उनके लिये भी जी लिया कर ।
बुन लिया कर ख़्वाब,उनके भी
 जो  आज भी पैबंद
अपने खुद सीते है।
 बेशक उड़ तू आसमानों में,
पर पैर जमी पर रखा कर
साथ उनके भी कभी
चल लिया कर ।
जिनके बगैर तू चलता न था ।
छत है ,वो घर की दीवारों से
लगाये रखना ।
आशीष उनका अपने
हिस्से में बचाये रखना।
वक्त हूँ ,यूँ बेहिसाब खर्च
न  किया कर ।
पर अपनों पर यु बेगानो
सा हिसाब ना लगाया कर!!
वक्त ही हूँ अपने  - अपनों
पर बेहिसाब खर्च किया कर!!
                    संगीता दरक माहेश्वरी
                सर्वाधिकार सुरक्षित

होलिका दहन #होलिका #दहन #होली #

  होलिका दहन आज उठाती है सवाल! होलिका अपने दहन पर,  कीजिए थोड़ा  चिन्तन-मनन दहन पर।  कितनी बुराइयों को समेट  हर बार जल जाती, न जाने फिर ...