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रौनक मेरे गाँव की Ronak mere ganv ki , beauty of my village




रौनक मेरे गाँव की
ख्वाहिशों का यह शहर बसा कैसा, 
सपने 'गाँव की मिट्टी' से ढह गए ।  
रौनक मेरे गाँव की शहर के
शौर में दब गई ।
गांव की पगडंडी अब एक 
चौड़ी सड़क में बदल गई ।
खुले आसमाँ में गिनते थे जो ,
तारे वह दिन अब ना रहे ।
सितारों से भरा आसमाँ
आँखो में यूँ बसा लेते थे ,
मानो जहाँ को रोशन करने की ख्वाहिश हो ।
हाथ में हमारे वक्त रहता था ,
जी चाहे जब अपनों के संग
खर्च कर लेते ।
पहले जमीन से आसमाँ
को निहारना बड़ा अच्छा लगता था ।
अब गगनचुंबी इमारतों से 
नीचे आने को मन करता है
  "ख्वाहिशों की खाई है कि 
भरती नहीं, वक्त है कि मिलता नहीं 
   दिन यूँ ही गुजर जाता है
कभी-कभी 
गैरों की क्या कहूँ ,अपने आप 
से भी नही मिल पाता हूँ ।
सब कुछ पाकर भी 
खाली हाथ लौट आया हूँ, 
रौनक मेरे गाँव की 
गाँव में छोड़ आया हूँ !!!!!
                 संगीता दरक माहेश्वरी
                  सर्वाधिकार सुरक्षित

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