#ये कहाँ आ गए हम,#y kha aa gay hum,

ये कैसा विकास ,ये कैसी आधुनिकता हम क्या थे और क्या हो गए ,कभी सोचा हम कहाँ आ गए ।
पढ़िए दोस्तों और सोचिये जरूर

ये कहाँ आ गए हम........
अभी वर्तमान परिस्तिथियों को देखकर सोचती हूँ की हमें नाक और मुहँ ही ढकने  है अगर आँखे ढकना पड़ जाये तो,,,,,,,,
ईश्वर न करे ऐसा दिन और परिस्तिथियां आये की हमे आँखे बंद करना पड़े।
पर सच में क्या हमने अपनी आँखे खोल रखी हैं।
हम इंसान अपने सामने किसी जीव को टिकने तक नही देते ,
हम धरती से आसमान तक अपनी ही  सत्ता चाहते हैं ।
अरे एक छोटी सी चींटी के झुंड देखते ही हम लक्ष्मण रेखा चॉक ढूंढने लगते है
हम विकास के नाम पर फैलते जा रहे है बस अपनी सुख सुविधाओं से हमे मतलब है ,फिर चाहे वो मकान बनाने हो या हो सड़के बंनाने की हो बात  पेड़ कट जाये चाहे खेत उजड़ जाये हम उनको नजरअंदाज करके सड़के बनाते है
हमे जीने के लिये हवा, खाने को भोजन पीने को पानी रहने को घर और ये हम सब जुटाते भी है प्रकृति से हमे धुप छाया बारिश सर्दी गर्मी सारे मौसम चाहिए ।हरेक मौसम समय पर आये ।हम भले ही इस प्रकृति के लिये कुछ करे न करे हमे सब चाहिए । 
विकास भी कम नही हुआ, इसको भी अनदेखा नही कर सकते हम निःसन्देह हम हरेक क्षेत्र में विकसित हुए ।
आज विज्ञानं ने बहुत तरक्की कर ली है हम मिनटों में कही भी पहुँच रहे ,कही भी ,किसी भी समय हो किसी से भी बात कर सकते है ।

और हम निकट भविष्य में इतना अधिक ज्ञान, विज्ञानं खोज लेगें की पुरानी सारी उपलब्धियां उसके सामने छोटी नजर आएगी
पर ये कैसी विकास की दौड़ जिसमे हमे पता ही नही की हम पाना क्या चाह रहे हैं ।
पेड़ो का कटना,प्रदूषण,परमाणुपरीक्षण और नष्ट होती भूमि की उर्वकता और खनिजों का दोहन और बढ़ती हुई जनसंख्या इतना सब हो रहा है और हम मूक बने विकास को जो (देख) रहे है। जीने के लिये हमें ज्यादा कुछ नही चाहिए , पर हमें थोड़ा पर्याप्त नही लगता।
हमे बहुत सारा चाहिये ,और इस बहुत सारे के चक्कर में हम खुद मिट रहे है
कहते है तृष्णा तो समुंदर के समान चौड़ाई और गहराई लिये होती हैं जिसका कोई पार नही होता।

आज हम इन परिस्तिथियों में पहुँचे हैं इसके जिम्मेदार हम स्वयं है प्रकृति का शोषण करते आये  है हम
क्या हमें समझाने
के लिये प्राकृतिक आपदाएं जरूरी है आज के हालात भले ही प्राकृतिक आपदा न हो लेकिन क्या कोरोना को हमने  नियंत्रण में  रखा मेरा अभिप्रायः ये है कि हम कोरोना को लेकर गम्भीर क्यों नही हुए । क्यों हमे अपनी और दूसरों की जान की परवाह नही हैं

हवा ,पानी और भी कई खनिज सम्पदाएँ प्रकृति हमे बिना किसी शुल्क के प्रदान करती है निःस्वार्थ ,बस हमसे इतनी अपेक्षा रखती है कि हम प्रकृति के नियमो से छेड़छाड़ न करे ,लेकिनयहाँ तो इसकी फेहरिस्त तो बहुत लंबी है हम तो बस अपने स्वार्थ से गिरे अरे पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी  मानव है ,और हम तो संग्रह और उपभोग में लगे है और इसके लिये जो करना पड़े वो सब करे जा रहे है
विकास देश का नही हमारे मन का संवेदनाओ का होना चाहिए,
भावनाओ सवेंदनाओ के कारण ही हम जानवरो से भिन्न है। वरना जी तो वो भी रहे है । 
प्राकृतिक आपदाएं आती है हम सहम जाते है ,थोड़े समय हम अपने पाप पुण्य का अवलोकन करते है ।
लेकिन फिर सब वही ,कब जागेंगे हम ऐसा नही की हमे वक्त रहते जगाया न हो ,जागृत लोगो की भी कमी नही है पर 100 में से 10 लोग जिन्होंने जगाने का बीड़ा उठाया है ।
कभी सोचा है ,जो सुख सुविधाओं से सम्पन्न जीवन हम जी रहे है वो कितनी मुसीबतों के बाद हमारे महापुरुषों ने हमे दिलाया है ।
देश को आजाद करवाया और कुरीतियों और प्रथाओं से मुक्त करवाया ।
और एक सशक्त देश जिसकी सनातन संस्कृति पर हम जितना गर्व करे उतना कम है
  "ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का "आज भी हम इन पंक्तियों पर झूमते तो है, पर मतलब समझने को तैयार नही है ।

हम जैसे घर बसाते है वैसे देश बसाया
हमारे महापुरुष तो हमे  हराभरा बाग सौंप कर गए हम अपने पीछे आने वाली पीढ़ी को क्या देकर जायेंगे।

  मुझे कहना पड़ रहा है क्यों की
धरती माँ तो कुछ बोलेगी नही आसमाँ भी कुछ कहेगा नही,
हम अपनी सफलताओं पर फुले नही समाते  जँहा हमने चिकित्सा के क्षेत्र में इतना विकास किया वहाँ हमने इतनी सारी बीमारियों को भी न्योता दिया।
यहाँ पर मैं उपलब्धियों आविष्कारों के सद्पयोग दुरूपयोग की विवेचना नही कर रही हूँ।
आज हमें जो  दाना ,पानी और हवा मिल रहा है वो अशुद्ध है ,
हम ये भागदौड़ जीने के लिये ही तो करः रहे  है।
पाषाण युग में मानव  जी रहा था उसके बाद मानव सभ्यता की श्रेणी में आया और मानव सभ्य हुआ ,
लेकिन क्या वो सभ्यता आज भी हमारे साथ है, आज मानवता कहा है ।
अभी भी हम जाग जाये तो कोई देर नही
क्यों हम भगवान की बनाई हुई सृष्टि को सुन्दर नही रख पा रहे अरे  मानव जीवन को तो देवता भी तरसते है ।
क्यों हम उस टहनी को काट रहे है जिस पर हमने अपना घरौंदा बनाया है।
हमे किसी को नही सुधारना हमे पहल अपने आप से करना है  उम्मीद करती हूँ मेरी कलम अपने उद्देश्य में सार्थक होगी
🙏🙏
कुछ पंक्तिया जिंदगी के दर्द को बयां करती हुई ...
जायका जिन्दिगी का तूने यूँ बदल दिया
रिश्तों में  ना रही मिठास
त्योहारो में ना रही  बात खास
केक और सेल्फी पर आकर सारा मामला अटक गया,
पहले वाला बचपन और प्यार
जाने कहा भटक गया।।
                      संगीता दरक माहेश्वरी
                        सर्वाधिकार सुरक्षित

6 comments:

  1. बहुत अच्छा आलेख है।

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  2. अप्रतिम आलेख, इस तरह से सोचना भी आज के मनुष्य के बस में नही है, वो कहावत आज यथार्थ चरितार्थ हो रही है जिसमे सत्य कहा गया है कि जो बीज बोए बबूल के तो आम कहा से पाय।
    प्रकृती जितनी सौम्य है उतनी ही रौद्र।

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  3. बहुत सटीक और सही लेखन👍

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  4. मानव की तृष्णावृत्ति के दुष्प्रभावों पर चिन्तन को प्रेरित कराता प्रभावी आलेख 🙋

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  5. वाह लेख और पंक्तियाँ दोनों बहुत सुंदर और सटीक👌

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