कहाँ गए वो पुराने दिन जब हम एक दूसरे को चिट्टिया लिखते थे ,डाकिया हर घर द्वार पर दस्तक देता था । आज के बच्चे तो पोस्टकार्ड को पहचानते ही नही है ।आज मेरी रचना का विषय यही है पढ़िये और अपने पुराने दिनों को याद करिये।
डाकिया डाक लाया...
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
अहसासों को हाथों से समेटकर,
लिफाफे में भरता न कोई।
लाल डिब्बा भर जाता था तरह- तरह की
बातों से,
आजकल लाल डिब्बे को खोजता न कोई।
उम्मीद और इंतजार की टकटकी
लगाता न कोई,
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
सालो संभालते हम इन चिट्ठियों को,
डिलीट का ऑप्शन होता न कोई।
कई-कई बार पढ़ते एक चिट्ठी को,
मन को भाती जैसी चिट्ठियां,
वैसे भाता न कोई।
खुशियो के दरवाजे को खटखटाता
न कोई,
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
मन की मेमोरी ऐसी भरता न कोई।
कभी खुशियो की सौगात,
तो कभी मन की बात,
आजकल सुनाता न कोई।
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
संगीता दरक माहेश्वरी
मन को छूती रचना
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