मलयज छंद
मिलजुल कर रह।
दुख हँसकर सह।
सब सच-सच कह।
जल बनकर बह।
मत रुक अब चल।
शुभ नित नभ-थल।।
मन सुख हर पल।
सुन हिय कल-कल।।
संगीता दरक माहेश्वरी
जीवन के सारे रंग , हौसला और हिम्मत अपनी पुरानी संस्कृति मेरी कविता में देखिये लेख, और शायरी भी पढ़िये ,मेरे शब्द आपके दिल को छू जाये ,और मेरी कलम हमेशा ईमानदारी से चलती रहे आप सब पढ़ते रहिये , और अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत जरूर कराये आपकी प्रतिक्रियाओ से मुझे प्रोत्साहन और मेरी कलम को ऊर्जा मिलेगी 🙏🙏
मलयज छंद
मिलजुल कर रह।
दुख हँसकर सह।
सब सच-सच कह।
जल बनकर बह।
मत रुक अब चल।
शुभ नित नभ-थल।।
मन सुख हर पल।
सुन हिय कल-कल।।
संगीता दरक माहेश्वरी
बस जरा सा
चकाचौंध बहुत हुई
बस रौनक जरा कम हो गई
सेल्फी में मुस्कान बहुत हुई
आँखें अपनो की जरा नम हो गई
फोन पर चैट बहुत हुई
अपनो से बातें जरा कम हो गई
दौलत शोहरत बहुत कमाई
सुक़ून शांति जरा कम हो गई
फ्रेंड लिस्ट लंबी चौड़ी हो गई
अपनो की फेहरिस्त जरा कम हो गई
जीने की ख्वाहिशें बहुत हुई
बस जरा सी उम्र कम हो गई
समाचार समाप्त हुए
पहले दिनभर में समाचार आते थे
अब समाचार दिनभर आते है
नमस्कार से शुरू होकर
नमस्कार पर खत्म होते थे
देश दुनिया के बारे में
जानकारी देते थे
न कोई ब्रेक न कोई डिबेट
शालीनता से होती थी बस भेंट
दूर से दर्शन करवाते पर
हर खबर हम तक पहुँचाते
अब भीड़ लगी है समाचारों की
पर कोई समाचार जान नहीं पड़ता
नंबर वन की होड़ लगी है
समाचारों की किसको पड़ी है
अमुक अमुक को बुलाकर
बहस करवाई जाएगी
फिर किसी के बिगड़े बोल पर
नई हेडलाइन बन जाएगी
सिलसिला चलता रहेगा
नई खबर मिलने तक
संगीता दरक माहेश्वरी
शॉल श्री फल और सम्मान
मिलना हुआ कितना आसान
बन बैठा हर कोई कवि यहाँ
कविताओं की जैसे लगाई दुकान
संगीता दरक माहेश्वरी
सुख-दुख साझा साथ करें,
कुछ अपनी कुछ उनकी सुन लेंगे,
आज हम बात समूची कर लेंगे।
रिश्तों में आई जो दरारें,
आओ, उनकी भरपाई करें,
उनकी सलाह पर कुछ गौर करें,
सुनकर समझने की कोशिश तो करें।
देखो, सब बातों का हल निकलेगा,
बातों का सिलसिला ये चल निकलेगा,
आओ, बैठें और बात करें,
आओ, बैठें और बात करें।।जरा मुश्किल है.....
अपनो से अपनी तारीफ सुनना
जरा मुश्किल है,
अपनी सफलता की सीढ़ी में
अपनों का साथ मिलना
जरा मुश्किल है,
कोई मौका अपने
अपनो को भी दे
जरा मुश्किल है,
सफलता काअवसर दे कोई
ऐसा अपनों का दिल मिलना
जरा मुश्किल है ।।
दो जून की रोटी
गोल-गोल रोटी जिसने पूरी दुनिया को अपने पीछे गोल-गोल
घुमा रखा है। यह रोटी कब बनी यह कहना थोड़ा मुश्किल है
पर हाँ, जब से भी बनी है तब से हमारी भूख मिटा रही है।
आज दो जून की रोटी की बात करते है,
अक्सर कहा जाता है कि हमें दो जून की रोटी भी
नसीब नहीं हो रही।
"दो जून की रोटी" यह पंक्ति साहित्यकारों ने, फिल्मकारों ने
सभी जगह काम में लिया है।
फिल्मों की बात करे तो उसमें भी रोटी का जिक्र हुआ "रोटी" और "रोटी कपड़ा और मकान" जो उस समय की सुपर हिट फिल्म हुई
इतना ही नही साहित्य जगत में प्रेमचंद जी ने भी रोटी की महिमा का बखान किया
जून शब्द अवध भाषा का है जिसका अर्थ होता है समय।
तो दो जून अर्थात् दो समय की रोटी यानी दो समय का भोजन।
जानकारों की माने तो कहा जाता है कि जून में भयकंर गर्मी पड़ती है और इस महीने में अक्सर सूखा पड़ता है।
इसकी वज़ह से चारे-पानी की कमी हो जाती है। जून में ऐसे इलाकों में रह रहे ग़रीबों को दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।
इन्हीं हालात में 'दो जून की रोटी' प्रचलन में आई होगी।
यह रोटी (Roti) शब्द संस्कृत के शब्द ‘रोटीका’ से आया और यह बात को 16वीं शताब्दी में लिखित आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी मिलता है।
साथ ही 10 वीं और 18 वी शताब्दी में भी रोटी का ज़िक्र किया गया।
हम आदिम मानव के समय की बात करें तो,
तब वह अपनी भूख जानवरों के शिकार और फल से
मिटाते थे फिर आग की खोज और उसके बाद अनाज और उसके
बाद रोटी बनी होगी जो आज जिसे लोग फुलका, चपाती,
रोटली एवम् भाखरी वगैरह के नाम से भी पुकारते हैं।
यह हम भारतीयों का ख़ास भोजन है।
आज चाहे जो फास्टफूड मिलता हो पर रोटी के बिना
सब अधूरा लगता है। ख़ासतौर से उत्तर भारत में जहाँ गेहूँ की पैदावार ज़्यादा है। कहा भी जाता है कि हमारी पहली ज़रूरत रोटी कपड़ा और मकान होती है ।
इसकी अहमियत का अन्दाज़ा हमारी कहावतों में भी मिल जाता है। जैसे लोग कहते हैं कि फलाने गाँव से हमारा ‘रोटी-बेटी का रिश्ता’ है।
अब रोटी चाहे गोल हो या हो कोई और आकार, पतली हो चाहे मोटी, घी में चुपड़ी हो या सूखी हो, उसके साथ प्याज हो या चटनी, दाल हो या हो ढेर सारी सब्जियाँ। रोटी ने अपनी भूमिका हरेक के साथ निभाई दाल रोटी हो या प्याज रोटी हो रोटी ने कभी भी अपना कदम पीछे नही हटाया।
महंगे आधुनिक रसोईघर में बनी हो चाहे खुले आसमान के नीचे रोटी भूख तो मिटाती ही मिटाती है।
रोटी ने अपने रूप भी बदले पराँठे तन्दूरी लच्छा नान और
भी न जाने क्या-क्या ।
और इस रोटी के लिए इंसान क्या-क्या करता है, किसी को यह आसानी से मिल जाती और किसी को बड़ी मुश्किल से
यह रोटी आलीशान महलों से लेकर झोपड़ी तक किसी अमीर की थाली से ग़रीब के हाथों में दिखाई देती है।
कहते है कि आदमी इस पापी पेट के खातिर सब कुछ करता है, यह रोटी इंसान से अच्छे-बुरे सभी कर्म करवाती है।
ईमानदारी की रोटी से मन तृप्त हो जाती है,
वही बेईमानी की रोटी से मन ही नहीं भरता।
तो आप सब भी दाल रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ ।।
होलिका दहन
आज उठाती है सवाल!
होलिका अपने दहन पर,
कीजिए थोड़ा
चिन्तन-मनन दहन पर।
कितनी बुराइयों को समेट
हर बार जल जाती,
न जाने फिर क्यों
इतनी बुराइयाँ रह जाती।
मैं अग्नि देव की उपासक,
भाई की आज्ञा के आगे नतमस्तक।
अग्नि का वरदान था
जला न सकेगी अग्नि मुझे,
पर जला दिया पाप, अधर्म, अहंकार ने
प्रह्लाद को, मैं जलाने चली नादान
पर बचाने वाले थे उसको भगवान।
सच आज भी तपकर निखरता है,
और झूठ आज भी टूटकर बिखरता है।
देती जो मैं सच का साथ,
ईश्वर का रहता मुझ पर हाथ!!!
सब्र का बाँध
सुना है सब्र का होता है बाँध,
फिर सहनशीलता की,
गहरी नदियों में,
जब उफान आएगा।
और यह उफान जब बाँध की
दीवारों से टकराएगा,
तो निश्चित ही एक दिन
बाँध टूट जाएगा,
और बह जाएँगे
ढह जाएँगे कई अनगिनत रिश्तें।
जो अंहकार में जीते,
और बिन सोचे समझे
हमारे सब्र का इम्तिहान लेते हैं।।।
संगीता दरक माहेश्वरी©
हाइकु.......
नेताओं संग
राजनीति के रंग
बदले पल में
नाथ के साथ
क्या खिलेगा कमल
बनेगी बात
देंगे क्या साथ
कमल के बनेंगे
हाथ मलेंगे
दल-बदल
इनकी चाल देखो
जिधर माल
गठबंधन
अपना कोई नहीं
स्वार्थ के सारे
हाथों में हाथ
है बगल में छुरी
घात लगाए।।
संगीता दरक माहेश्वरी
प्रेम में प्रपोज
किया तुमको
तुम्हारी मुस्कान से
पूरे हुए अरमान
सिलसिला प्रेम का
अनवरत रहा
प्रेम का निर्वाह
जिम्मेदारियों के
संग होने लगा
जीवन कई रंगों से
खिलने लगा
राजनीति में नेताओ की करतूत देखिए
सत्ता के मद में राम के अस्तित्व
को नकार रहे हैं
उसी पर मेरी कुछ पंक्तियाँ
न हो तू भ्रमित
अरे जिनसे हैं ये पंच तत्व
उनका क्या नहीं हैं अस्तित्व
नादान हैं वो जो राम को नहीं जानते
आत्मा में परमात्मा को वो नहीं मानते
बैठे थे मेरे राम जब तम्बू में
अब मिल रहा उन्हें जब मंदिर
क्यों करते हो राजनीति
जो राम का नहीं
वो काम का नहीं
है धरा से अम्बर तक
सत्ता जिनकी
उनको किसी सत्ता का
कहना बेकार है
ये इंसानियत नहीं
कुर्सी का अंहकार है
धर्म होता क्या ?
धर्म का अर्थ
होता सत्कर्म
अस्तित्व के लिए करता
नही कभी अधर्म
होता नही धर्म
छोटा या बड़ा
धर्म तो सत्य की
राह पर खड़ा
धर्म विध्वंस नहीं करता
सदा निर्माण में
विश्वास रखता
भटके को राह
दिखाए धर्म
सिखाता करने
सच्चे कर्म
26 जनवरी गणतंत्र दिवस
आओ, आज हम 75 वाँ
गणतन्त्र दिवस मनाते हैं
21 तोपों की सलामी के
साथ तिरंगा फहराते हैं
विश्व के सबसे बड़े
लोकतांत्रिक देश हम कहलाते हैं
प्रचण्ड, पिनाक, नाग, भीष्म हैं तैयार
दुश्मनों को देश की ताकत हम बताते हैं
सबसे लम्बे लिखित संविधान
का गौरव मनवाते हैं
470 अनुच्छेद, 25 भाग
और 12 अनुसूचियाँ
अधिकार बतलाते हैं
नये भारत की नई
तस्वीर बनाते हैं
प्रभु को अवध मिल गया
जनमानस भी खिल गया
प्रभु को अवध मिल गया
अलख जगा दी सत्य की
विपक्ष यही हिल गया
देखो गगन पर छाया
चाँद को छूकर आया
कई दिनों का संघर्ष
है आज रंग लाया
हो सनातन की जब बात
धर्म के नाम पर करो मत आघात
देश की सीमा में है जो रहना
देश हित की ही करना बात
देश विकसित हो रहा
नए कीर्तिमान गढ़ रहा
विश्व गुरु बनने को है
दुश्मन भी अब काँप रहा
तत्पर हैं साथ चलने को
होड़ में थे जो आगे बढ़ने को
हमें जो कमजोर समझते
आतुर हैं हाथ मिलाने को
भारत विश्व का प्रेरक बन गया
प्रभु को अवध मिल गया
सनातन संस्कृति से परिपूर्ण
सुशासन जैसा खिल गया
संगीता दरक
राम आएँगे
जय श्री राम
आए प्रभु अवध
विराजे आज
भव्य मंदिर
दीये जले हजार
फैला प्रकाश
सनातन हो
परम्परा की बात
प्रभु के साथ
राम ही राम
हुआ है धरातल
फैला उजास
मिटा संकट
हुआ है उजियारा
आए हैं राम
भगवा रंग
फैला है चहुँ ओर
मिटा तमस
पाँच सौ वर्ष
बीता ये वनवास
आई खुशियाँ
भव्य मंदिर
सत्तर एकड़ में
जन हर्षाए
पावन माटी
सरयू का है जल
स्वर्ण की शिला
हाइकु
"करोड़ो के" 😃😃
रखो धीरज
ऐसा करो कमाल
हो मालामाल
मिटी गरीबी
लाए हैं ख़ुशहाली
भरी तिजोरी
धर धीरज
हाँफ रही मशीने
अधीर जन
राजनीति में
देखो हो रही ऐश
भोली जनता
करोड़ों बातें
जनता कहाँ जाने
बनें जो साहू
भरी तिजोरी
करके भ्रष्टाचार
लोकतंत्र में
भूखी जनता
भरपेट नेताजी
बिना डकारे
चल सखी अबकी बार...
मन के आंगन में हरियाली बिछाते हैं,
खुशियों के फूल खिलाते हैं ।
उमंगो की बुँदे बरसाकर,
मीठी यादों को टटोलकर
चल सखी अबकी बार
इसमें आस के बीज रोपते हैं।
उत्साह और जोश के मौसम में
धैर्य का खाद देते हैं,
आत्मविश्वास की लगा झड़ी
चल सखी अबकी बार मन के आँगन में
हरियाली बिछाते हैं।
भरोसे के बीज से उत्साह का पौधा
निकल आएगा,
उल्लास से हरा-भरा शाखाओं संग इतरायेगा।
कलियों की महक से मन खिल जाएगा,
चल सखी अबकी बार
मन के आँगन में हरियाली बिछाते हैं।
संगीता दरक माहेश्वरी
जय महेश
विषय :-बढ़ती उम्र विवाह से जुड़ी समस्याएं व निदान
इस पर मेरे विचार
समाज में सदा सन्तुलन यथावत रखेंगे।
बच्चों का विवाह युक्त समय पर करेंगे।।
नहीं कोई असमंजस न कोई फिक्र हो।
हर जगह हम माहेश्वरियों का जिक्र हो।।
जीवन में हर कार्य नियत समय पर होना चाहिए, प्रकृति भी हमें यही सीख देती है सूरज उगने में कभी देर नही करता चाहे कुछ भी परिस्तिथियाँ रही हो और ढलता भी नियत समय पर।
अभी कुछ वर्षों में हमारे समाज की जटिल समस्या है बढ़ती उम्र बच्चो की, विवाह की उम्र में विवाह नहीं हो रहे जिससे अभिभावकों की चिंता बढ़ गई है ।
अविवाहित युवाओं के माता-पिता की दशा बहुत खराब है ।
27 से लेकर 35 वर्ष के युवा अविवाहित घूम रहे हैं।
विवाह नहीं होने के कारण:- युवाओं का उच्च शिक्षा प्राप्त न करना ,गाँव मे रहना,नोकरी के क्षेत्र में न होना या अच्छा पैकेज न होना।
या संयुक्त परिवार में रहता हो।
आज के दौर में लड़कियाँ जहां उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है, और नए- नए ओहदे पर कार्य कर रही है,ऐसे में लड़कियों और उनके अभिभावकों की महत्वकांक्षा बहुत बढ़ गई है उनको लड़का नोकरी पेशा चाहिए और तो और पैकेज भी अच्छा चाहिए और लड़का बड़े शहर में रहता हो परिवार छोटा हो ये सब कारण और इतनी मांगे जो उचित नहीं हैं विवाह विलम्ब के लिये कारण बनते है ।
विवाह की उम्र होते ही जब माता- पिता द्वारा बच्चो को कहा जाता है तब बच्चे अपने कैरियर को लेकर चिंतित रहते है और जब तक वो सैटल होते है तब तक विवाह की उम्र निकल जाती हैं।
आधुनिक चकाचौंध में युवा पीढ़ी अपने कैरियर और भविष्य को लेकर इतना गम्भीर है कि जब उनको विवाह के लिये कहा जाता है तो वो कहते है कि कर लेंगे क्या जल्दी है, ऐसा कहते कहते कब उम्र ढल जाती है पता ही नही चलता।
पहले के समय मे सम्बन्ध करवाने में मध्यस्थ की भूमिका बहुत खास होती थी, दोनों पक्ष मध्यस्थ की बात सुनते थे। और कुछ बात भी हो जाती तो मध्यस्थ की भूमिका से बात सम्भल जाती थी लेकिन चूंकि बच्चे आजकल घरवालों के कहने में ही नही तो फिर मध्यस्थ का क्या कहे।
आजकल बच्चे पढ़ाई के लिए बाहर जाते है और वही रह जाते जिससे रिश्तेदार उन्हें ज्यादा जानते ही नहीं ऐसे में कोई सम्बन्ध करवाता नही और कहते है कि कौन जिम्मेदारी ले रिस्क कोन ले पता नही (लड़का या लड़की) कैसे है ।
युवकों की बढ़ती उम्र की चिंता ने अभिभावको को दूसरे समाज मे सम्बन्ध करने को मजबूर कर दिया फलस्वरूप दूसरे समाज में हमारे समाज के सम्बंध हो रहे है
देरी से विवाह होने पर सन्तान उतपत्ति में भी समस्या आती है
विवाह सम्बन्ध टूटने का एक कारण ये भी है कि बढ़ती उम्र में विवाह होने से दोनों के विचार और सामंजस्य नही बैठता ।
निदान निदान
हर समस्या को समय रहते अवश्य सुलझाना चाहिए
हम माहेश्वरीयो से दूसरे समाज प्रेरणा लेते है
हमें अपने बेटों और बेटियों को पढ़ाना चाहिए उच्च शिक्षा भी दिलाना चाहिए लेकिन अपने संस्कार और रीति-रिवाजों से उन्हें दूर नहीं रखना चाहिए और विवाह की उम्र होते ही उनको कह देना चाहिये की विवाह की उम्र में ही विवाह होना चाहिए पढ़ाई और कैरियर तो विवाह के बाद भी बन सकता है अभी एक स्लोगन बहुत चल रहा है बेटी ब्याहो और बहू पढ़ाओ इसका मतलब यही है कि बेटियों को समय से ब्याह दो और शादी बाद बहुओं को पढ़ाओ।
एकऔर बात बेटियो के माता पिता को अपनी महत्वकांशाओ को कम रखना चाहिए और अपनी बेटी के लिए अच्छा लड़का ,सिंगल फेमेली, अच्छा पैकेज ,बड़ा शहर ये सब सोच न रखते हुए सुसंस्कारी परिवार और कमाने वाला लड़का हो ऐसी सोच रखनी चाहिए
समाज द्वारा समय समय पर परिचय सम्मेलन करवाने चाहिए और सोशल मीडिया के माध्यम से ऐसे ग्रुप्स बनाये जाए जिसमे एक दूसरे से सम्बन्धो की चर्चा हो सके ।
समाज के लोगो को ये समझना होगा कि समाज का समाज मे ही सम्बन्ध हो जिससे परिवार में संस्कार आएंगे और हमारा समाज उन्नत समाज बनेगा
समाज की ऐसी समस्याओं के निराकरण हेतु समाजजन को समय- समय पर विचार विमर्श करके ठोस कदम उठाने चाहिए।
हमे अपने समाज के बच्चो को संस्कार शुरुआत से ही देने चाहिए। ताकि युवा होने पर वो सही निर्णय ले सके।
संगीता दरक माहेश्वरी
दोस्ती सुहाना अहसास है।
सभी रिश्तों में ये खास है।
बड़े भाग्य से मिले एक दोस्त,
समझ लो कायनात पास है।
ये किताबें
खामोश रहकर भी कितनाधरती तरुवर माँगती,
नदियाँ माँगे नीर।
अति दोहन नित है बुरा,
मनवा अब रख धीर।।
बढ़ते सम्बन्ध विच्छेद कारण और निवारण
बसन्त ऋतु में प्रकृति ने प्रेम की चादर ओढ़ ली, जब प्रकृति ही प्रेममय है तो फिर इस प्रेम से कोई कैसे बचे।
प्रेम, प्यार, उल्फत, मोहब्बत, इश्क व लव
न जाने कितने नाम, लेकिन एहसास एक।
प्यार सभी रिश्तों में होता है, तभी हम रिश्ते निभाते हैं, बिना प्रेम के कोई रिश्ता निभ नहीं सकता।
क्योंकि जहाँ प्रेम नहीं, स्नेह नहीं, वहाँ रिश्तों की कल्पना ही नहीं कर सकते।
प्रेम कब नहीं था, पहले भी था, अब भी है, हमेशा ही रहेगा।
राधा को कृष्ण से प्रेम था, मीरा भी कृष्ण से प्रेम करती थी, मगर इनके प्रेम में शारीरिक आकर्षण नहीं था, मन से प्रेम, भाव से प्रेम और दोनों के लिए ही प्रेम का उद्देश्य उसको पाना नहीं था, बल्कि आपस में समाने का था। आज के दौर में प्रेम के मायने बदले हैं, अब प्रेम समर्पण नहीं सिर्फ अपना हक माँगता है।
क्या प्रेम अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच पाता है।
क्या है प्रेम की पराकाष्ठा आज के दौर में ?
कहते हैं कि प्रेम की पराकाष्ठा राधा और समर्पण की पराकाष्ठा मीरा और इस प्रेम व समर्पण की पराकाष्ठा श्री कृष्ण है।
प्रेम क्या है महज आकर्षण या यौवन की दहलीज का सुनहरा ख्वाब।
क्या प्रेम को पाना ही उसकी सार्थकता है। प्रेम किसे नहीं होता, यह तो सबको होता है, बस कोई इजहार कर देता है और कोई प्रेम की मंजिल को पा लेता है।
प्रेम उम्र के बन्धन को भी नहीं स्वीकारता।
न ही यह किसी में भेद करता है, कब किससे प्रेम हो जाए पता ही नहीं चलता।
क्योंकि प्रेम सोचने का अवसर ही नहीं देता।
आजकल प्रेम निश्छल नहीं रहा, प्रेम स्वार्थी हो गया है।
इसके लिए चाहे अपने रूठे या अपनों को छोड़ना पड़े, इसकी परवाह नहीं करता। आज के प्रेम करने वालों से हम त्याग की उम्मीद नहीं कर सकते।
बहुत कम ऐसे होते हैं, जो अपने अपनों के लिए अपने प्रेम को भूलना स्वीकार करते हैं।
प्रेम के मायने बदल गए सोच बदल गई, और प्रेम पाने के बाद भी वह अपनी मंजिल पर पहुँचे या नहीं यह किसी को अवगत ही नहीं।
बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो रिश्ते में बन्ध तो जाते हैं पर निभा नहीं पाते।
वह प्रेम को समझ ही नहीं पाते हैं।
प्रेम पाने का ही नाम नहीं है, प्रेम एक से होता है तो उसके सारे अपनों को भी अपनाना होता हैं।
लेकिन आज के दौर का प्रेम बस दो लोगो के बीच तक ही सीमित है, प्रेम एक-दूजे पर इस कदर हावी हो जाता है कि वो अपनों की परवाह किए बिना गलत कदम उठा लेते हैं।
प्रेम होने का सबूत नहीं दिया जा सकता है, प्रेम तो बस महसूस किया जाता है। प्रेम को करना नही समझना है, और प्रेम को परखना है तो पहले हमें प्रेम में
समर्पित होना पड़ेगा।
आजकल लिव इन रिलेशनशिप में जो रहते हैं वो अपने आपको प्रेमी कहते है। निभ जाए तो प्रेम और न निभे तो टुकड़े-टुकड़े प्रेम के।
प्रेम को प्रेम ही रहने दो, प्रेम छिनता नहीं सर्वस्य न्यौच्छावर करता है ।
प्रेम सिर्फ पाने का नाम नहीं है। प्रेम को बस प्रेम ही रहने दो।।
99 का फेर
कहते हैं कि इस जग की माया में जो फँसा वह फँस कर ही रह गया।
एक बार अगर कोई 99 के फेर में पड़ जाए तो निकलना मुश्किल है, वह इसमें ही लगा रहता है।
बात 99 की हो या ...........999 रूपए की हो
इस निन्यानवे के ऑफर से कोई बच जाए तो बड़ी बात है।
हम दौड़े-दौड़े जाते हैं, हमें सौ से निन्यानवे कम
लगता है, हम इन दोनों के फासले को भूल जाते हैं। सच कहूँ तो इस 99 के फेर में हम एक रुपए को बहुत महत्व देते हैं।
निन्यानवे काऑफर हो और उस पर एक
खरीदने पर दूसरा फ्री भी हो तो सोने पर सुहागा।
त्यौहार की आहट सुन ये ऑफर जरूर आते हैं और हमारे दिलों दिमाग में दस्तक दे जाते हैं और दिल भागा-भागा जाता है इनकी ओर।
जीवन में खुशियों का अवसर ऑफर के बिना अधूरा है, ऐसा सोचकर हम ऑफर में फँस जाते हैं। बात ऑफर की हो तो हम इनसे दूर नहीं रह सकते हैं।
हमें हर ऑफर में अपनी सैलरी+ इन्क्रीमेंट+ मेहनत= ऑफर लगता है।
इस रफ्तार भरी जिन्दगी में जहाँ हम 99 के चक्कर में पड़े हैं, आदमी का काम मशीन और मशीन का काम आदमी कर रहा है। हमारी व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि हमें अपनों के लिए समय ही नही है।
हमारी जरूरतें इतनी बढ़ गई है कि हम बस उनको पूरा करने में लग जाते हैं। हमें हर चीज अच्छी और बस अच्छी ही चाहिए। खाने की बात हो तो हमें बेमौसम के फल और सब्जियाँ ही चाहिए, भले ही वो हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाए, हमें तो बस
खाना है। बात खाने की ही नहीं है, कपड़े की बात हो या शादी समारोह की, हमें सब काम बहुत अच्छा करना है, पैसों की पूरी ताकत के साथ फिर चाहे उसके लिए हमें कुछ भी करना पड़े। हमें पता ही नही हम क्या पाने की चाह में दौड़ रहे है।
जीवन पहले भी जीते थे आनन्द से, पहले भी
जीवन चल रहा था, हमारी जरूरतें कम थी और कम जरूरतों के साथ जीवन खूब सुखी था।
बड़े-बड़े मकान और उसमें सारी सुविधाएँ गाड़ी
और न जाने क्या-क्या।
अपनों के बीच दूरियाँ बढ़ गई, मिलने-मिलाने के लिए अवसर तलाशने पड़ते हैं।
न हमें अपने लिए समय है, न अपनों के लिए
रिश्तों में उलझने बढ़ती जा रही है, हम सुकून की तलाश में भटक रहे हैं। अपनी व्यस्तता भरी जिन्दगी में हम अपनी सेहत का ख्याल भी नहीं रख पा रहे। हम अपने और अपनों के लिए जितनी उठापटक
करते हैं, क्या हम पैसों से सारी खुशियाँ खरीद
सकते है। हम क्या पाना चाहते हैं और क्या वो
हमें मिल रहा है।
क्यों हम निन्यानवे को सौ बनाने के चक्कर
में पड़े हैं। हमें खुशहाल जीवन जीने के लिए
अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों को कम
करना पड़ेगा।
तभी हम अपनी जिन्दगी को सुकून से जी पाएँगे।
खुशियों के अवसर ऑफर के रूप में हमें कई बार मिलते हैं, बस हमें उनको समझने और उनका लाभ उठाने की देर है।
छोटी-सी जिन्दगी है मजे से जिओ बस और खुशियों के अवसर तलाशते रहो।
संगीता दरक
मकर संक्रांति #पतंग #उड़ान #आसमान #गुड़ #तिल्ली
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, सच में बहुत अद्भुत अनोखा देश है हमारा, अनेक ऋतुएँ और मौसम व इनके अनुसार खानपान और ऋतु परिवर्तन के समय पर त्योहारों का आगमन सब कुछ अद्भुत!
यूँ तो सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का वास है। लेकिन सूर्य और चन्द्रमा ईश्वर के द्वयचक्षु सदृश है। जब-जब सूर्य की स्थिति में परिवर्तन होता है, हम प्रभावित होते हैं।
ऐसा ही एक त्योहार हैं मकर संक्रांति, शीत ऋतु के पौष मास में जब भगवान सूर्य उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं यहाँ
"मकर" शब्द मकर राशि और संक्रांति अर्थात संक्रमण अर्थात प्रवेश करना एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने के स्थापन क्रिया को संक्रांति कहते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार सूर्य अपने पुत्र शनि की नाराजगी भूलकर उससे मिलने जाते हैं, शनि मकर राशि के स्वामी है। ऐसा भी कहते हैं कि मकर संक्रांति के दिन भागीरथी के तपोबल पर भगवान विष्णु के अंगूठे से गंगा माता पृथ्वी पर प्रकट हुई।
प्राचीन उपनिषदों के अनुसार उत्तरायण का आरम्भ मुक्ति का मार्ग दिखाता है।
महाभारत में जब पितामह भीष्म बाणों की शय्या पर लेटे होते हैं, तो वह भी उत्तरायण शुरु होने पर ही अपना शरीर छोड़कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है, दिन धीरे-धीरे बड़े होने लगते हैं। रातें धीरे-धीरे छोटी होने लगती है।
विनयचन्द्र मौद्गल्य है की रचना
"हिन्द देश के निवासी हम सभी जन एक हैं, रंग-रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं"
ये पंक्तियाँ हम भारतीयों के लिए कितनी सटीक है। मकर संक्रांति देश के सभी हिस्सों में मनाया जाता है, बस अलग-अलग नामों से। मकर संक्रांति का त्योहार हरियाणा और पंजाब में लोहड़ी के रूप में
बिहार में मकर संक्रांति को खिचड़ी के रूप में, मकर संक्रांति पर खिचड़ी खाने के पीछे भी आरोग्य वृद्धि का कारण होता है। खिचड़ी में हल्दी
व घी का सम्बन्ध गुरु और सूर्य से होता है।
असम में माघ बिहू, मुगाली बहू के रूप में तमिलनाडु में पोंगल, केरल में मकर, विलक्कू और उत्तराखण्ड में घुघूती भी कहते हैं।
गुजरात के अहमदाबाद शहर में पतंगबाजी का उत्सव दो दिन तक चलता है, अहमदाबाद में पंतग और मांझे (पतंग उड़ाने का धागा) का बाजार लगता है।
राजस्थान और मध्य प्रदेश में इस त्योहार को संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। यहाँ पर मकर संक्रन्ति के दिन गेहूँ का खिचड़ा (पूरे गैहूँ को गलाकर विशेष रूप से बनाया गया) दूध और चीनी मिश्रित करके बनाया जाता है।
मकर संक्रांति के दिन दान करना शुभ माना जाता है। इस दिन गरीबों को अन्न-वस्त्र का दान और गाय माता को घास व गुड़ खिलाते हैं। सुबह जल्दी उठकर नदी तालाब में स्नान करना या जल में तिल डालकर स्न्नान करने की भी मान्यता है। सुहागिने इस अवसर पर चौदह वस्तुएँ कलपती है और अपने से बड़ो को पाँव लगकर (प्रणाम करके ) देती है। कहीं-कहीं सक्रांति की सुबह अलाव भी जलाया जाता है।
बच्चो में पतंगबाजी को लेकर गजब का उत्साह रहता है, कहीं-कहीं पुराना खेल गिल्ली-डण्डा भी खेलते हैं। हमारे हर त्योहार के पीछे अच्छी भावना रहती है।
हर त्योहार जीवन मे उत्साह उमंग भर देता है।
लेकिन ये उत्साह कभी कभी दुखदाई भी होता है। मकर संक्रांति पर्व पर गगन में पतंगों का अम्बार लग जाता है। पतंग उड़ाने की शुरुआत कब और कैसे हुई इसके बारे में कोई लिखित रूप से कुछ स्पष्ट नहीं है, लेकिन भारत में यह पतंग उड़ाने की परम्परा बहुत पुरानी है, इस परम्परा ने आज प्रतिस्पर्धा का रूप ले लिया है। उड़ान भरना किसे अच्छा नहीं लगता, हवा के रूख के साथ हो या हवा के विपरीत हो डोर थामें उंगलियाँ हवा के रूख को देखकर पतंग से आकाश नापने की चाह किसे नहीं होती। आसमान एक दिन हमारे लिए है, पर परिंदों की आवाजाही में कोई रुकावट न हो हमारे धागे से उन्हें चोट न पहुँचे, इसलिये हम चीन के मांझे का इस्तेमाल न करके अपने देश मे बनने वाले कपास के धागे, जिनको तेज बनाने के लिए किसी रासायनिक नहीं बल्कि गौंद चावल के आटे और अन्य सामग्री का उपयोग किया जाता है।
वैसे 2017 में चीनी मांझा जो कि रसायन और धातु के मिश्रण से ये ब्लेड जैसा धारदार होता है, ये टूटता नही है, स्ट्रेच होता है और तो और इलेक्ट्रिक कण्डक्टर होता है, जिससे इसमें करंट भी आ सकता है। इसे प्रतिबन्धित भी किया गया है, लेकिन हमारे देश मे अभी भी इसका उपयोग हो ही रहा है, इस धागे से पतंग उड़ाने वाले के हाथ कट जाते हैं और पक्षियों को भी चोट लग जाती है। राह चलते हुए किसी वाहन चलाने वाला इस धागे में उलझ जाए तो दुर्घटना हो सकती है। अगर चाइनीज मांझा ट्रेन के पेंटोग्राफ में उलझ जाए तो उसमें से चिंगारी निकलने लगती है। पतंग पहले भी उड़ती थी, आसमां को छूती थी मगर परिन्दों की आवाजाही में कोई बाधा नही होती और कोई अप्रिय घटना नही घटती थी।
सरकार प्रतिबन्ध तो लगाती है पर हम मानते नहीं और इसका हर्जाना भी हमें ही भुगतना पड़ता है। क्यों हम अपने त्योहारों को पुराने तरीके से नही मनाते।
हम सब मिलकर इतना प्रयास करें कि गुड़ और तिल की मिठास का स्वाद और त्योहार का उल्लास बना रहे, बस! हम अपनी खुशी में औरों का भी ध्यान रखें
त्योहार जीवन में प्रसन्नता का उजास भरते हैं न कि दुःखों का अँधेरा। अस्तु -
~~ संगीता दरक माहेश्वरी
सच बोले कौआ काटे........ आप सोच रहे होंगे कि मैंने कहावत गलत लिख दी कहावत तो कुछ और है पर वर्तमान में यही कहावत ठीक बैठती है सच में, आ...