दोस्ती सुहाना अहसास है।
सभी रिश्तों में ये खास है।
बड़े भाग्य से मिले एक दोस्त,
समझ लो कायनात पास है।
जीवन के सारे रंग , हौसला और हिम्मत अपनी पुरानी संस्कृति मेरी कविता में देखिये लेख, और शायरी भी पढ़िये ,मेरे शब्द आपके दिल को छू जाये ,और मेरी कलम हमेशा ईमानदारी से चलती रहे आप सब पढ़ते रहिये , और अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत जरूर कराये आपकी प्रतिक्रियाओ से मुझे प्रोत्साहन और मेरी कलम को ऊर्जा मिलेगी 🙏🙏
दोस्ती सुहाना अहसास है।
सभी रिश्तों में ये खास है।
बड़े भाग्य से मिले एक दोस्त,
समझ लो कायनात पास है।
ये किताबें
खामोश रहकर भी कितनाधरती तरुवर माँगती,
नदियाँ माँगे नीर।
अति दोहन नित है बुरा,
मनवा अब रख धीर।।
बढ़ते सम्बन्ध विच्छेद कारण और निवारण
बसन्त ऋतु में प्रकृति ने प्रेम की चादर ओढ़ ली, जब प्रकृति ही प्रेममय है तो फिर इस प्रेम से कोई कैसे बचे।
प्रेम, प्यार, उल्फत, मोहब्बत, इश्क व लव
न जाने कितने नाम, लेकिन एहसास एक।
प्यार सभी रिश्तों में होता है, तभी हम रिश्ते निभाते हैं, बिना प्रेम के कोई रिश्ता निभ नहीं सकता।
क्योंकि जहाँ प्रेम नहीं, स्नेह नहीं, वहाँ रिश्तों की कल्पना ही नहीं कर सकते।
प्रेम कब नहीं था, पहले भी था, अब भी है, हमेशा ही रहेगा।
राधा को कृष्ण से प्रेम था, मीरा भी कृष्ण से प्रेम करती थी, मगर इनके प्रेम में शारीरिक आकर्षण नहीं था, मन से प्रेम, भाव से प्रेम और दोनों के लिए ही प्रेम का उद्देश्य उसको पाना नहीं था, बल्कि आपस में समाने का था। आज के दौर में प्रेम के मायने बदले हैं, अब प्रेम समर्पण नहीं सिर्फ अपना हक माँगता है।
क्या प्रेम अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच पाता है।
क्या है प्रेम की पराकाष्ठा आज के दौर में ?
कहते हैं कि प्रेम की पराकाष्ठा राधा और समर्पण की पराकाष्ठा मीरा और इस प्रेम व समर्पण की पराकाष्ठा श्री कृष्ण है।
प्रेम क्या है महज आकर्षण या यौवन की दहलीज का सुनहरा ख्वाब।
क्या प्रेम को पाना ही उसकी सार्थकता है। प्रेम किसे नहीं होता, यह तो सबको होता है, बस कोई इजहार कर देता है और कोई प्रेम की मंजिल को पा लेता है।
प्रेम उम्र के बन्धन को भी नहीं स्वीकारता।
न ही यह किसी में भेद करता है, कब किससे प्रेम हो जाए पता ही नहीं चलता।
क्योंकि प्रेम सोचने का अवसर ही नहीं देता।
आजकल प्रेम निश्छल नहीं रहा, प्रेम स्वार्थी हो गया है।
इसके लिए चाहे अपने रूठे या अपनों को छोड़ना पड़े, इसकी परवाह नहीं करता। आज के प्रेम करने वालों से हम त्याग की उम्मीद नहीं कर सकते।
बहुत कम ऐसे होते हैं, जो अपने अपनों के लिए अपने प्रेम को भूलना स्वीकार करते हैं।
प्रेम के मायने बदल गए सोच बदल गई, और प्रेम पाने के बाद भी वह अपनी मंजिल पर पहुँचे या नहीं यह किसी को अवगत ही नहीं।
बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो रिश्ते में बन्ध तो जाते हैं पर निभा नहीं पाते।
वह प्रेम को समझ ही नहीं पाते हैं।
प्रेम पाने का ही नाम नहीं है, प्रेम एक से होता है तो उसके सारे अपनों को भी अपनाना होता हैं।
लेकिन आज के दौर का प्रेम बस दो लोगो के बीच तक ही सीमित है, प्रेम एक-दूजे पर इस कदर हावी हो जाता है कि वो अपनों की परवाह किए बिना गलत कदम उठा लेते हैं।
प्रेम होने का सबूत नहीं दिया जा सकता है, प्रेम तो बस महसूस किया जाता है। प्रेम को करना नही समझना है, और प्रेम को परखना है तो पहले हमें प्रेम में
समर्पित होना पड़ेगा।
आजकल लिव इन रिलेशनशिप में जो रहते हैं वो अपने आपको प्रेमी कहते है। निभ जाए तो प्रेम और न निभे तो टुकड़े-टुकड़े प्रेम के।
प्रेम को प्रेम ही रहने दो, प्रेम छिनता नहीं सर्वस्य न्यौच्छावर करता है ।
प्रेम सिर्फ पाने का नाम नहीं है। प्रेम को बस प्रेम ही रहने दो।।
99 का फेर
कहते हैं कि इस जग की माया में जो फँसा वह फँस कर ही रह गया।
एक बार अगर कोई 99 के फेर में पड़ जाए तो निकलना मुश्किल है, वह इसमें ही लगा रहता है।
बात 99 की हो या ...........999 रूपए की हो
इस निन्यानवे के ऑफर से कोई बच जाए तो बड़ी बात है।
हम दौड़े-दौड़े जाते हैं, हमें सौ से निन्यानवे कम
लगता है, हम इन दोनों के फासले को भूल जाते हैं। सच कहूँ तो इस 99 के फेर में हम एक रुपए को बहुत महत्व देते हैं।
निन्यानवे काऑफर हो और उस पर एक
खरीदने पर दूसरा फ्री भी हो तो सोने पर सुहागा।
त्यौहार की आहट सुन ये ऑफर जरूर आते हैं और हमारे दिलों दिमाग में दस्तक दे जाते हैं और दिल भागा-भागा जाता है इनकी ओर।
जीवन में खुशियों का अवसर ऑफर के बिना अधूरा है, ऐसा सोचकर हम ऑफर में फँस जाते हैं। बात ऑफर की हो तो हम इनसे दूर नहीं रह सकते हैं।
हमें हर ऑफर में अपनी सैलरी+ इन्क्रीमेंट+ मेहनत= ऑफर लगता है।
इस रफ्तार भरी जिन्दगी में जहाँ हम 99 के चक्कर में पड़े हैं, आदमी का काम मशीन और मशीन का काम आदमी कर रहा है। हमारी व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि हमें अपनों के लिए समय ही नही है।
हमारी जरूरतें इतनी बढ़ गई है कि हम बस उनको पूरा करने में लग जाते हैं। हमें हर चीज अच्छी और बस अच्छी ही चाहिए। खाने की बात हो तो हमें बेमौसम के फल और सब्जियाँ ही चाहिए, भले ही वो हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाए, हमें तो बस
खाना है। बात खाने की ही नहीं है, कपड़े की बात हो या शादी समारोह की, हमें सब काम बहुत अच्छा करना है, पैसों की पूरी ताकत के साथ फिर चाहे उसके लिए हमें कुछ भी करना पड़े। हमें पता ही नही हम क्या पाने की चाह में दौड़ रहे है।
जीवन पहले भी जीते थे आनन्द से, पहले भी
जीवन चल रहा था, हमारी जरूरतें कम थी और कम जरूरतों के साथ जीवन खूब सुखी था।
बड़े-बड़े मकान और उसमें सारी सुविधाएँ गाड़ी
और न जाने क्या-क्या।
अपनों के बीच दूरियाँ बढ़ गई, मिलने-मिलाने के लिए अवसर तलाशने पड़ते हैं।
न हमें अपने लिए समय है, न अपनों के लिए
रिश्तों में उलझने बढ़ती जा रही है, हम सुकून की तलाश में भटक रहे हैं। अपनी व्यस्तता भरी जिन्दगी में हम अपनी सेहत का ख्याल भी नहीं रख पा रहे। हम अपने और अपनों के लिए जितनी उठापटक
करते हैं, क्या हम पैसों से सारी खुशियाँ खरीद
सकते है। हम क्या पाना चाहते हैं और क्या वो
हमें मिल रहा है।
क्यों हम निन्यानवे को सौ बनाने के चक्कर
में पड़े हैं। हमें खुशहाल जीवन जीने के लिए
अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों को कम
करना पड़ेगा।
तभी हम अपनी जिन्दगी को सुकून से जी पाएँगे।
खुशियों के अवसर ऑफर के रूप में हमें कई बार मिलते हैं, बस हमें उनको समझने और उनका लाभ उठाने की देर है।
छोटी-सी जिन्दगी है मजे से जिओ बस और खुशियों के अवसर तलाशते रहो।
संगीता दरक
मकर संक्रांति #पतंग #उड़ान #आसमान #गुड़ #तिल्ली
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, सच में बहुत अद्भुत अनोखा देश है हमारा, अनेक ऋतुएँ और मौसम व इनके अनुसार खानपान और ऋतु परिवर्तन के समय पर त्योहारों का आगमन सब कुछ अद्भुत!
यूँ तो सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का वास है। लेकिन सूर्य और चन्द्रमा ईश्वर के द्वयचक्षु सदृश है। जब-जब सूर्य की स्थिति में परिवर्तन होता है, हम प्रभावित होते हैं।
ऐसा ही एक त्योहार हैं मकर संक्रांति, शीत ऋतु के पौष मास में जब भगवान सूर्य उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं यहाँ
"मकर" शब्द मकर राशि और संक्रांति अर्थात संक्रमण अर्थात प्रवेश करना एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने के स्थापन क्रिया को संक्रांति कहते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार सूर्य अपने पुत्र शनि की नाराजगी भूलकर उससे मिलने जाते हैं, शनि मकर राशि के स्वामी है। ऐसा भी कहते हैं कि मकर संक्रांति के दिन भागीरथी के तपोबल पर भगवान विष्णु के अंगूठे से गंगा माता पृथ्वी पर प्रकट हुई।
प्राचीन उपनिषदों के अनुसार उत्तरायण का आरम्भ मुक्ति का मार्ग दिखाता है।
महाभारत में जब पितामह भीष्म बाणों की शय्या पर लेटे होते हैं, तो वह भी उत्तरायण शुरु होने पर ही अपना शरीर छोड़कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध से उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है, दिन धीरे-धीरे बड़े होने लगते हैं। रातें धीरे-धीरे छोटी होने लगती है।
विनयचन्द्र मौद्गल्य है की रचना
"हिन्द देश के निवासी हम सभी जन एक हैं, रंग-रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं"
ये पंक्तियाँ हम भारतीयों के लिए कितनी सटीक है। मकर संक्रांति देश के सभी हिस्सों में मनाया जाता है, बस अलग-अलग नामों से। मकर संक्रांति का त्योहार हरियाणा और पंजाब में लोहड़ी के रूप में
बिहार में मकर संक्रांति को खिचड़ी के रूप में, मकर संक्रांति पर खिचड़ी खाने के पीछे भी आरोग्य वृद्धि का कारण होता है। खिचड़ी में हल्दी
व घी का सम्बन्ध गुरु और सूर्य से होता है।
असम में माघ बिहू, मुगाली बहू के रूप में तमिलनाडु में पोंगल, केरल में मकर, विलक्कू और उत्तराखण्ड में घुघूती भी कहते हैं।
गुजरात के अहमदाबाद शहर में पतंगबाजी का उत्सव दो दिन तक चलता है, अहमदाबाद में पंतग और मांझे (पतंग उड़ाने का धागा) का बाजार लगता है।
राजस्थान और मध्य प्रदेश में इस त्योहार को संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। यहाँ पर मकर संक्रन्ति के दिन गेहूँ का खिचड़ा (पूरे गैहूँ को गलाकर विशेष रूप से बनाया गया) दूध और चीनी मिश्रित करके बनाया जाता है।
मकर संक्रांति के दिन दान करना शुभ माना जाता है। इस दिन गरीबों को अन्न-वस्त्र का दान और गाय माता को घास व गुड़ खिलाते हैं। सुबह जल्दी उठकर नदी तालाब में स्नान करना या जल में तिल डालकर स्न्नान करने की भी मान्यता है। सुहागिने इस अवसर पर चौदह वस्तुएँ कलपती है और अपने से बड़ो को पाँव लगकर (प्रणाम करके ) देती है। कहीं-कहीं सक्रांति की सुबह अलाव भी जलाया जाता है।
बच्चो में पतंगबाजी को लेकर गजब का उत्साह रहता है, कहीं-कहीं पुराना खेल गिल्ली-डण्डा भी खेलते हैं। हमारे हर त्योहार के पीछे अच्छी भावना रहती है।
हर त्योहार जीवन मे उत्साह उमंग भर देता है।
लेकिन ये उत्साह कभी कभी दुखदाई भी होता है। मकर संक्रांति पर्व पर गगन में पतंगों का अम्बार लग जाता है। पतंग उड़ाने की शुरुआत कब और कैसे हुई इसके बारे में कोई लिखित रूप से कुछ स्पष्ट नहीं है, लेकिन भारत में यह पतंग उड़ाने की परम्परा बहुत पुरानी है, इस परम्परा ने आज प्रतिस्पर्धा का रूप ले लिया है। उड़ान भरना किसे अच्छा नहीं लगता, हवा के रूख के साथ हो या हवा के विपरीत हो डोर थामें उंगलियाँ हवा के रूख को देखकर पतंग से आकाश नापने की चाह किसे नहीं होती। आसमान एक दिन हमारे लिए है, पर परिंदों की आवाजाही में कोई रुकावट न हो हमारे धागे से उन्हें चोट न पहुँचे, इसलिये हम चीन के मांझे का इस्तेमाल न करके अपने देश मे बनने वाले कपास के धागे, जिनको तेज बनाने के लिए किसी रासायनिक नहीं बल्कि गौंद चावल के आटे और अन्य सामग्री का उपयोग किया जाता है।
वैसे 2017 में चीनी मांझा जो कि रसायन और धातु के मिश्रण से ये ब्लेड जैसा धारदार होता है, ये टूटता नही है, स्ट्रेच होता है और तो और इलेक्ट्रिक कण्डक्टर होता है, जिससे इसमें करंट भी आ सकता है। इसे प्रतिबन्धित भी किया गया है, लेकिन हमारे देश मे अभी भी इसका उपयोग हो ही रहा है, इस धागे से पतंग उड़ाने वाले के हाथ कट जाते हैं और पक्षियों को भी चोट लग जाती है। राह चलते हुए किसी वाहन चलाने वाला इस धागे में उलझ जाए तो दुर्घटना हो सकती है। अगर चाइनीज मांझा ट्रेन के पेंटोग्राफ में उलझ जाए तो उसमें से चिंगारी निकलने लगती है। पतंग पहले भी उड़ती थी, आसमां को छूती थी मगर परिन्दों की आवाजाही में कोई बाधा नही होती और कोई अप्रिय घटना नही घटती थी।
सरकार प्रतिबन्ध तो लगाती है पर हम मानते नहीं और इसका हर्जाना भी हमें ही भुगतना पड़ता है। क्यों हम अपने त्योहारों को पुराने तरीके से नही मनाते।
हम सब मिलकर इतना प्रयास करें कि गुड़ और तिल की मिठास का स्वाद और त्योहार का उल्लास बना रहे, बस! हम अपनी खुशी में औरों का भी ध्यान रखें
त्योहार जीवन में प्रसन्नता का उजास भरते हैं न कि दुःखों का अँधेरा। अस्तु -
~~ संगीता दरक माहेश्वरी
❤️ बहुत दूर तक निकल आता है,
मेरा मन तेरे साथबात तो नजर की है!
मैंने उसको देखा और देखते रह गया! अरे, मैंने तो उसको देखा ही नहीं! अरे ज़रा एक नजर देखो तो सही! मैं तो उसे देख ही नहीं सकता! कभी हम लालायित रहते है देखने को, और देखते ही उसमें अच्छाई बुराई को ढूँढने लगते हैं।
हमारी नजर जैसे ही किसी को देखती है मन मष्तिष्क सोचने लगता है, उसके प्रति भाव जागृत होते हैं, क्रिया प्रतिक्रिया होने लगती है। कभी-कभी हम ऐसा भी देखते है कि नजर ही नहीं हटती और कभी ऐसा भी कि फिर देखने को मन ही ना करे।
प्यार भरी नज़र पराए को भी अपना बना लेती है। वहीं तिरछी या टेढ़ी निगाह दूरियाँ और संदेह पैदा करती है। बच्चों को प्यार भरी नजर से देखो तो वह अपने पास दौड़ा चला आता है और गुस्से वाली नजर से देखो तो मुँह बनाकर रोने लगता है।
आँखे होते हुए भी हम कभी-कभी कितना कुछ नजरअंदाज कर देते हैं। क्यों हमारी नजर कुछ ऐसा देखना चाहती है जो हमें नहीं देखना है? महाभारत की द्यूत सभा में धृतराष्ट आँखों से अंधे थे लेकिन बाकी सबकी आँखे होते हुए भी उस सभा में द्रोपदी का चीर हरण हुआ और सबने देखा, कोई भी उसे रोक नही पाया।
अभी दुनिया में कितने अपराध हो रहे है, तो क्या मैं यह कहूँ कि आँखे न होती तो शायद इतना कुछ ना होता! जब आप देखेगे ही नहीं तो कुछ होगा ही नहीं, मन में भाव दुष्भाव आएंगे ही नहीं!
लेकिन एक बात और ये भी है कि
कभी-कभी नजर देख कर कुछ गलत हो तो ठीक भी कर सकती है। महाभारत में धृतराष्ट्र अंधे थे, तो उनकी पत्नी पति के अंधत्व के कारण अपनी आँखों पर पट्टी बांधने का निर्णय लेती है। ऐसा निर्णय लेना कोई सहज नहीं है, लेकिन वह पतिव्रता पत्नी ऐसा निर्णय लेती है, लेकिन वह यह न करके अपने पति की आँखे बनती तो शायद इतिहास कुछ और होता।
खैर हम इस बात को यही छोड़ते हैं।क्योंकि बात तो नजर की है कि आपकी नजर कैसी, आपने देखा क्या, और देखने पर मन में भाव क्या आये। आपकी नजर किसी पर नजर रख सकती है, तो किसी नजर को नजर से बचा सकती है। आँखे नहीं हो तो भी मन में भाव तो विचारों को उत्पन्न करते हैं, आँखे बंद होती हैं तब भी मन सोचना तो बंद नहीं करता है।
ये नजर ही तो है जो किसी को फलक पे तो कभी जमी पर गिरा देती है, किसी की नजरों से बचना मुश्किल है।
"जो देखकर भी नहीं देखते हैं" हेलेन केलर का पाठ भी हमें यही बताता है कि हम आँखे होते भी नहीं देखते हैं। प्रकृति ने हमारे चारो और सुंदर नजारे बिखेरे है फिर हमारी नजर सुंदरता को क्यों नहीं देखती ।
हेलेन केलर, जो आँखों से देख नही सकती थी, लिखती है "जब अपनी मित्र से पूछा जो जंगल की सैर करके लौटी कि तुमने
क्या-क्या देखा तो मित्र का जवाब था कि कुछ खास तो नही" तो हेलेन केलर को बहुत आश्चर्य हुआ और वो सोचने लगी कि जिन लोगो की आँखे होती है वो कम देखते है। जिस प्रकृति के स्पर्श मात्र से उसका मन आनन्दित हो उठता है और देखने वालों को जरा भी आनंद की अनुभूति नही हुई आश्चर्य है !
कहने का अभिप्राय यह है कि हम आँखों वाले अपनी आँखों का सही उपयोग कर रहे है या नहीं!
दुर्ष्टिहीन सोचते है कि दुनिया की सारी सुंदरता तो आँखों वाले ही देखते है, जबकि हम अपनी आँखों से क्या देख रहे और किसे अनदेखा कर रहे है !
मेरा ये कहना है कि भगवान ने जो आँखे हमें दी है, उससे हम अच्छा देखें। वरना हमसे तो वो बिना आँखों वाले अच्छे, जो न देखते हुए भी अच्छा महसूस करते हैं ।
ये नजर बचपन में माँ से ममता मांगती है तो योवन काल मे पिता से हक मांगती है। ये नजर कब नजर से मिलती और आँखे चार कर लेती, कब ये जिम्मेदारियों को देखने लगती है। बात तो नजर की है हम इससे कहाँ कब क्या देखते हैं।
ये नजर हमे आभास करवाती है कि भविष्य के गर्भ में क्या है, नजर से ही तो भाव झलकते है, ये नजर किसी की पीड़ा को देखकर नम हो जाए, किसी की खुशी में शामिल हो जाये, हमारी नजर ऐसी हो जाये कि चारो ओर ख़ुशियाँ ही खुशियाँ नजर आए।
संगीता दरक
तेरा हर ख्याल धड़कनों को छू जाता,
तू बिन बोले ही बहुत कुछ कह जाता,
हर बात तेरी अनोखी,अंदाज अलग सा,
मैं देखती रह जाती,
तू आँखों से दिल मे उतर जाता ।
संगीता दरक
रावण जलने को तैयार नहीं
कुछ भुला दिया जाए,
कुछ याद रखा जाए,
तू ही बता जिंदगी,
तुझे कैसे जिया जाए।
मिला जो नसीब से,कहाँ गए वो पुराने दिन जब हम एक दूसरे को चिट्टिया लिखते थे ,डाकिया हर घर द्वार पर दस्तक देता था । आज के बच्चे तो पोस्टकार्ड को पहचानते ही नही है ।आज मेरी रचना का विषय यही है पढ़िये और अपने पुराने दिनों को याद करिये।
डाकिया डाक लाया...
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
अहसासों को हाथों से समेटकर,
लिफाफे में भरता न कोई।
लाल डिब्बा भर जाता था तरह- तरह की
बातों से,
आजकल लाल डिब्बे को खोजता न कोई।
उम्मीद और इंतजार की टकटकी
लगाता न कोई,
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
सालो संभालते हम इन चिट्ठियों को,
डिलीट का ऑप्शन होता न कोई।
कई-कई बार पढ़ते एक चिट्ठी को,
मन को भाती जैसी चिट्ठियां,
वैसे भाता न कोई।
खुशियो के दरवाजे को खटखटाता
न कोई,
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
मन की मेमोरी ऐसी भरता न कोई।
कभी खुशियो की सौगात,
तो कभी मन की बात,
आजकल सुनाता न कोई।
आता नही डाकिया अब, लेकर चिट्ठी कोई।
संगीता दरक माहेश्वरी
मेरी डायरी
सबके मन का सुनती है,
सुख-दुख का हिस्सा बनती है।
जीवन के हर पल का हिसाब इस पर होता,
कोई तिजोरी में तो कोई सिरहाने रख सोता।
मेरी डायरी बनती कभी किसी यात्रा का हिस्सा,
तो बनती कभी किसी जीवन का किस्सा।
मन की हो या दिल की बात सब सुन लेती,
कितना भी कुछ हो जाए किसी से कुछ न कहती।
रखता कोई गुलाब तो कोई प्रेम पाती ,
तनहाई को भी यादों से उसकी महकाती ।
हर रंग के भाव अपने में बसाती,
अधूरी ख़्वाहिशों और साकार सपनों
को अपने में सजाती।
बातों से जब भर जाती कोने
में रख दी जाती ,
चलती जब यादों की बयार
एक -एक पन्ना छेड़ जाती।
सबसे न्यारी मेरी डायरी
मन को भाती ,
अपनो से भी बढ़कर मेरा साथ निभाती ।
संगीता दरक माहेश्वरी©
इस पत्थर का सफर भी बड़ा अजीब है इसने आदमी के असभ्य से सभ्य होने तक साथ दिया
इस पत्थर के कई रूप है जैसा चाहा वैसा हमने इसे बनाया पढ़िए पत्थर की व्यथा मेरे शब्दों में
ये पत्थर
ये पत्थर चट्टान सा मजबूत था,
लगा जिसके सिर उसके लिये यमदूत था!
पर जब बिखरा तो बिखरकर टूट गया,
जैसे अपनों का साथ इक पल में छूट गया!
कभी इसे नींव का तो कभी मील का
पत्थर बनाया,
मिले तराशने वाले हाथ तो देकर आकार
किसी देवालय में बैठाया!
कभी मस्जिद की दीवार में तो कभी
मंदिर के कंगूरों में सजाया,
कभी बनाकर सेतु सागर पार करवाया!
कभी इसे रत्न शान शौकत तो कभी
ठोकर में लुढ़काया,
कभी किसी राह का रोड़ा तो कभी जोर आजमाइश में आजमाया!
इस पत्थर को हमने भी क्या खूब आजमाया,
असभ्यता और सभ्यता के बीच का
सफर भी इस पत्थर ने पार करवाया!
ये पत्थर तो आखिर पत्थर है फिर क्यों
हमने मानवता को पत्थर बनाया।
और धर्म के नाम पर इसे
अपना हथियार बनाया!
संगीता दरक माहेश्वरी©
ज़माने की भीड़....
जमाने की भीड़ से न रख वास्ता,
बस ईश्वर में रख तू आस्था।
झूठ से न रख वास्ता,
चुन हरदम तू सच का रास्ता।
निराशाओं का जीवन से न हो वास्ता,
आत्मविश्वास भरपूर रख तू अपने अंतस्था।
जीवन मे रोगों से न हो वास्ता,
हरदम अपना तू योग, प्राणायाम का रास्ता।
रहे आनन्द ही आनन्द चाहे हो कोई अवस्था,
बनाये रखना जीवन मे तू अपने अनुशास्ता।
अभिमान अहंकार से न हो वास्ता,
रखना तू हरदम याद ईश्वर की है ये
प्रशास्ता (सत्ता) ।
जमाने की भीड़ से न रख वास्ता,
बस ईश्वर में रख तू आस्था।
संगीता दरक माहेश्वरी©
ये जीवन है अनमोल.....
यह जीवन है अनमोल,
नशे का जहर इसमे मत घोल।
जी ले ये जिंदगी, है बड़ी अनमोल।
नशे के पलड़े में मत इसको तोल ।
जीवन मे हो आगे बढ़ना,
तो नशे के चक्कर मे कभी न पढ़ना।
शराब गुटखा और सिगरेट
मत कर इन से यारी,
मौत के सामान की है ये तैयारी ।
संगीता दरक माहेश्वरी©
28 मई का दिन.."मासिक धर्म दिवस"
"बात उन दिनों की"
स्वच्छता एवं स्वच्छता दिवस पर आप सभी को बधाई ।
सन 2014 में जर्मनी के एक NGO ने इस दिन को मनाने की शुरुआत् की ।
चलो आज हम खुद की बात खुलकर सबसे
करते हैं।
वो जीवन देने के चार दिन ...
लाल रंग शक्ति का परिचायक है, आज मैं इस लाल रंग की ही बात कर रही हूँ, नारी का दूसरा रूप शक्ति और यही शक्ति अपने में सृजन को संचित करती है। असहनीय पीड़ा को झेलती है ।
बचपन की चहलकुद खत्म होते ही ,एक धर्म शुरु हो जाता है, जो विज्ञान की नजर में नारी को पूर्ण करता है, और उस माहवारी के साथ ढेर सारे नियंम कायदे।
कही फुसफुसाहट तो कही चुप्पी और शर्म सी ।
लेकिन ये सब क्यों ?
ये एक शारीरिक क्रिया है जो स्त्रीत्व को पूर्ण करती है ,जब मातृत्व साकार होता है तो गुजंती है किलकारियाँ मनाते हैं उत्सव। तो मासिक धर्म पर चुप्पी क्यों ?
क्यों कपड़े और पेड के बीच का सफर तय नही हुआ आज भी।
क्यों आज भी हम इतना शिक्षित और विकसित होने के बाउजूद भी पीछे है।
बस बहुत हुआ ,टीवी में विज्ञापन आता है तो अब नज़रे नीची नहीं करना है, अब खुलकर बात करना है।
स्वच्छता और स्वस्थता को अपनाना है।
भारत जैसे देश में जहाँ महिलाओं के शिक्षा और स्वास्थ्य पर पुरजोर दिया जाता है वहाँ मासिक धर्म को लेकर कोई बात नही क्या हमे सेनेटरी नेपकिन कम मूल्य या निःशुल्क मिलने चाहिए ।
ताकि स्वस्थ और स्वछ्ता दोनों का ख्याल रहे ।
आश्चर्य की बात ये भी है,
कि यूँ तो हमारे देश में हर मुद्दे पर बहस और अधिकार की बातें होती है ,लेकिन सेनेटरी नैपकिन हर एक को न्यूनतम मूल्य या निशुल्क उपलब्ध हो ऐसा मुद्दा आज तक किसी ने नहीं उठाया।
और ये ऐसी जरूरत है जो हरेक वर्ग की महिलाओं और लड़कियों को चाहिए।
हाँ हमारे देश की संसद में 2017 में निनॉन्ग इरिंग ने जरूर पीरियड लीव के लिए बात रखी थी।
भारत में माहवारी और महिलाओं की सेहत से जुड़े विषयों पर अब भी खुल कर बात नहीं होती। लेकिन अब धीरे- धीरे जागरुकता बढ़ रही है,
कई स्तरों पर हो रही सामाजिक पहल के अलावा वर्तमान में एक सच्ची कहानी पर आधारित बनी एक फिल्म पैडमैन में भी इस बारे में खुलकर बात करने पर जोर दिया गया।
लखनऊ के मनकामेश्वरमठ की महंत दिव्यागिरी ने पिछले दिनों मंदिर परिसर में पीरियडस को लेकर एक गोष्ठी कराई, जिसका विषय था 'माहवारी, शर्म नहीं सेहत की बात'.
यूनिसेफ का एक अध्ययन बताता है कि 28 प्रतिशत लड़कियां पीरियड्स के दिनों में स्कूल नहीं जातीं, इसीलिए केरल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों ने सरकारी स्कूलों में फ्री सैनिटरी नेपकिन देने की शुरुआत की है, ताकि पीरियडस के कारण लड़कियों की पढ़ाई का नुकसान न हो। कई संस्थाएं भी महिलाओं को पैड मुहैया कराने के प्रयासों में जुटी हैं।
अभी पेड मशीन लगाने की मुहिम भी शुरु की थी, 5 रुपये का सिक्का डालते ही मशीन एक पेड उगलती है ,लेकिन इन मशीनों को रखरखाव यानि समय -समय पर उसमे पेड उपलब्ध होंगे तभी जरूरतमंद की पूर्ति होगी । मैं तो कहती हूँ की
ये 5 रुपये भी क्यों निःशुल्क मिलना चाहिए।
र्ब्रिजरानी मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट नाम की संस्था देश भर में एक हजार पैड बैंक बनाना चाहती है. इन पैड बैंकों में उन महिलाओं को पैड मुहैया कराए जाएंगे जो इन्हें नहीं खरीद पातीं।
वाकई सेनेटरी नेपकिन तो फ्री होना ही चाहिए।
आज भी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली ज्यादातर महिलाएं इन दिनों मे कोई सैनिटरी नेपकिन इस्तेमाल नहीं करतीं, कई बार वे आर्थिक कारणों से इन पैड्स को नहीं खरीद पाती हैं, तो कइयों को यह उपलब्ध नहीं होते हैं।
वो कपड़ा काम में लेती है जिसे धुप में खुले में सुखाया तक नही जाता शर्म के कारण।
पीरियड्स के दौरान साफ-सफाई बहुत जरूरी है, वरना कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं. इनमें बुखार, अनियमित पीरियड्स, खून ज्यादा आने के साथ गर्भधारण में दिक्कतें शामिल हैं।
अंत में एक बात और
स्कॉटलैंड की संसद ने सर्वसम्मति से महिलाओं से जुड़े स्वच्छता उत्पादों को बांटने वाला कानून पास किया है।
.कानून के पास हो जाने के बाद स्कॉटलैंड मासिक धर्म से जुड़े उत्पादों को मुफ्त में देने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है
क्या ऐसा हमारे देश में हम महिलाओं के लिये हो सकता हैं।
बात उन दिनों की........
संगीता माहेश्वरी दरक©
मन की बातें ....
मन की बातें मन ही जाने,मिलने की जो अभित्सा (लालसा) है
वो बनाये रख,
पहले दूरियों का स्वाद तो चख !
संगीता दरक©
अपने भीतर कितना कुछ,
बिखेर आई हूँ ।
तब कहिं जाकर ,
कुछ लोग राई का पहाड़
बना लेते है ,
और तो और,
उस पर चढ़ा भी देते है।
खुद तो अपनी जिंदगी
मजे से जीते हैं ,
और दूसरों की जिंदगी में
जहर घोल देते है !!
संगीता दरक माहेश्वरी
महावीर जन्म कल्याणक पर्व पर आप
सभी को बहुत-बहुत बधाई...शुभकामनाये
हम अपना व अपनो का जन्मोत्सव तो बड़े हर्ष से मनाते हैं, लेकिन बात जब उस परमात्मा की हो।
इनका जन्म अंतिम जन्म हुआ। और उसके बाद अहिंसा अपरिग्रह और आत्मध्यान आदि के माध्यम से मोक्ष चले गए।
मन मे अपार हर्ष होता है महावीर भगवान के पद चिन्ह पर निरंतर चलने वाले,
मुनि 108 श्री प्रणम्य सागर जी और 108 चन्द्रसागर जी महाराज श्री का आगमन माह दिसम्बर सन 2015 मैं मनासा हुआ और इस पुनीत पावन अवसर का लाभ
हमें भी मिला...
महाराज श्री ने अपने प्रवचनों के साथ
सभी को अर्हम योग भी सिखाया।
मुझे महाराज श्री के समक्ष कुछ बोलने का अवसर मिला। आज आप सबसे वही साझा कर रही हूँ
"सुबह से शाम तक दौड़ता है आदमी"
सुबह से शाम तक दौड़ता है आदमी,
दौड़ते दौड़ते दम तोड़ता है आदमी।
संतों की वाणी की छांव में,
पल भर बैठता है आदमी।
दर-दर भटकता है, राम को ढूंढता है
लेकिन जब ज्ञान गुरुवर का मिलता है
अपने अंतरात्मा में,
राम को पहचानता है आदमी ।
गुरु की वाणी से ही सँवरता है ,
शिक्षा और संस्कारों के महत्व को
जानता है आदमी ।
गुरु के ज्ञान से उन्हें,
अमल में लाता है आदमी ।
ओम अर्हम के नाद से अपने
स्वास्थ्य को सुधारता है आदमी ।
सुबह से शाम तक दौड़ता है आदमी,
और अपनी आपाधापी से जब
थकता है,पल भर सुस्ताता है,
गुरुवर के चरणों में आदमी ।
संगीता दरक माहेश्वरी
काँटो को भी चमन चाहिए
रहने को फूलों के पास
थोड़ी सी जगह चाहिए
खुशबू ना मिले ना सही
थोड़ी सी चुभन तो चाहिए
बहारें हमें भी छुए
पतझड़ बनकर ही सही
जिंदगी हमें भी मिले
चाहे फूलों के तले ही सही
संगीता दरक©
तुम वो हो ही नही जैसा मेने चाहा
साथ तुम्हारा ऐसा मिला ही नही जैसा मेने चाहा
न तुमने समझा मुझे कभी ऐसे जैसा मैंने चाहा
हर बार उम्मीद लगाई मैने तुमसे
पर मेरी उम्मीद में तुम थे ही नही
चल तो रही है जिंदगी पर
वैसे नही जैसे मेने चाहा
निभाया है ,आगे भी निभा लुंगी पर
वैसे नही जैसे मैंने चाहा
जाने क्यों तूम वो हो ही नहीं
संगीता दरक©
सपनों को तो साथ चाहिए
सपनों को तो साथ चाहिए
बस एक अंधेरी रात चाहिए
आएंगे और समा जाएंगे
पलकों तले और कभी बह जाएंगे अश्को में
मैं कह उठती हूँ
क्यों आते हैं मुझे सपने
जो नहीं है मेरे अपने
कभी लगता है इन से डर
भागती हूँ उनसे दूर
मगर फिर सोचती हूँ यही तो मेरा सहारा है
क्यों कि हकीकत तो मुझसे दूर भागती है
संगीता दरक माहेश्वरी©
ख्वाहिशो की पतंग को, कोशिश के मांजे से उमंगो की ढील देते रहना।
ऊंची उड़ान भरते हुए डगमगाने लगो तो, बढ़ते कदम थोडे पीछे ले लेना।मंजिले वही थी हमने राहें बदल ली,
कारवां वही था हमने हमराजखूब की कोशिश हमने निभाने की
चालाकिया समझ न आई हमे जमाने कीदहेज प्रथा
बेटे का सौदासातु तीज रो त्योहार
वैशाख की गर्मी के बाद सावन की ठंडी फुहार बड़ी सुहानी लगती है एक तरफ आसमान प्यार बरसाता है तो धरती हरियाली ओढ़ने लगती है हरियाली को देखकर मन झूमने लगता है सावन के झूले और तीज त्यौहार साथ में बरखा की फुहार ।
हमारे यहाँ कहते हैं कि नाग पंचमी से त्योहारों का आगमन होता है और ऋषि पंचमी से समापन श्रावण मास में शिवालयों में शिव भक्ति की गूंज सुनाई देती है, हरियाली अमावस्या में मालपुये की मिठास ।
और उसके बाद छोटी तीज सिंजारा और लहरिये की बात है खास
युवतिया हो या ब्याहता सब के लिए खास तीज का यह त्यौहार मेहंदी रचे हाथ और सातू की मिठास लिमडी की पूजा और दूध भरी परात और उसमें पायल ककड़ी नींबू और दीये और लिमड़ी के दर्शन करना चांद को अर्घ्य देना और उसके बाद सत्तू पासना सब कुछ उमंगों से भरा हुआ ।
हिंदू कैलेंडर के अनुसार भाद्रपद यानी कि भादो माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया बड़ी तीज मनाई जाती है, बड़ी तीज का उत्सव भारत के कई राज्यों में मनाया जाता है।
राजस्थान बिहार झारखंड उत्तर प्रदेश पंजाब और राजस्थान के कोटा के बूंदी शहर में सातु तीज का मेला भी लगता है।
बड़ी तीज के सिंजारे का अपना ही महत्व है इस दिन सुहागिन महिलाएं लहरिया की साड़ी पहनती है, और सोलह सिंगार करती है अविवाहित कन्या भी मेहंदी लगाती है ,उनके लिए जिनकी सगाई हो जाती छोटी तीज का सिंजारा भी महत्वपूर्ण होता है ,उनके ससुराल से लहरिया की साड़ी और श्रृंगार का सामान और जेवर मिठाई आदि आते हैं। बड़ी तीज के दिन जौ, चने ,चावल,मैदे का सत्तू बनाया जाता है (एक प्रकार की मिठाई जो आटे को भूनकर शक्कर घी के साथ बनाई जाती है )
,4 साल एक धान के आटे का सत्तू पासा(खाया) जाता है या ऐसे 16 साल तक चने, गेहूँ, चावल ,जौ, खाया जाता है।
आजकल तो सातु के लडुओ को तरह-तरह से सजाया जाता है ,
विवाहित महिलाओं का सत्तू का पिंडा (लड्डू) उनके पति द्वारा खोला जाता है और लड़कियों के सत्तू का पिंडा उनके भाई के द्वारा खोला जाता है ,इस तरह पिंडे के साथ सग (एक और लड्डू)होती है जिसे अपने बड़े (सास या जेठानी,ननद)को पैर लगकर दिया जाता है सच में हमारी परम्पराओ में संस्कार और स्नेह दोनों है।
संगीता दरक©
आप मेरे इस लेख को भारतीय परंपरा पत्रिका में भी पढ़ सकते है ।
"जो रंग चढ़ा है आज ( देशभक्ति )
का उसे उतरने मत देना।"
दौड़ता है रगो में ,जिस रफ्तार से लहू
वो रफ्तार कम न होने देना।
और बात जब देश हित की
होतो क्या पार्टी क्या ताज।
वीरो की ये धरती है ,बता देना
नापाक इरादे रखने वालों को ।
देखा जो हमारी तरफ आँख
उठाकर खाक में मिला देंगे।
जय हिंद जय भारत
संगीता दरक ©
यूँ ही नहीं बनती
कविता और ये कहानियाँ
परिस्तिथियाँ बनती है,
और मन में विचारो के बादल उमड़ते है
शब्द बरसते है ,
कोई बूँद अपने में भाव लिये
कागज पर उतरती
और कोई बिना भाव लिये मिट जाती
उन्ही बूंदों से कोई कविता कहानी बन जाती
और आपके दिल को स्पर्श
करने की कोशिश करती
और ये कोशिश निरन्तर रहती ।
संगीता दरक©

कुछ रिश्ते हमे बने बनाये मिलते है
और
कुछ बन जाते हैं कुछ निभाने पड़ते है
और
कुछ निभ जाते हैं।
संगीता दरक©
वो मिट्टी, वो आबो हवा
हमें नही मिली
वरना पनपना तो
हम भी जानते थे।
संगीता दरक©

आज फिर पुराने ख्वाबो को मैं
सिरहाने रखकर सो गई,
नये ख्वाबो की तलाश में
आज फिर सुबह हो गई!
संगीता दरक©
मैं और उम्मीद
उम्र के साथ बढ़ते
कभी बंनती बिगड़ती
तो कभी नई पनपती
आस कभी न छूटती
संगीता दरक©
कहते है कि हमारा सबसे पहला गुरु या टीचर जीवन दायिनी माँ होती है और उसके बाद ज्ञान देने वाले गुरु का महत्व हमारे जीवन में अधिक होता है
और गुरु को गोविंद से भी बढ़कर बताया है आज मेरी रचना समर्पित है मेरे गुरु को जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया
नमन गुरुवर
सपनो को हमारे ,जो करते हैं साकार,
साँचे में ढालकर देते है जो आकार ।
सफलता के शिखर पर जो पहुँचाते है,
सच्चाई की राह हमे दिखलाते हैं।
कामयाबी को छू जाते है ,
जो थामें गुरु का हाथ,
सफलता उसके हरदम रहती साथ।
दीप सा जो जलता है ,
प्रकाश पुंज बनता है,
और वो ज्ञानमयी प्रकाश,
अज्ञान के अंधेरो को हरता हैं।।
✍️संगीता माहेश्वरी
सर्वाधिकार सुरक्षित
उफ्फ, ये इश्क है
जरा संभल कर कीजिये ।
दिल को अपने ,
यूँ बेदखल न कीजिये !!
संगीता दरक©
मेरा जन्मदिन 24 जून को था उस दिन मेरे मन में जो भाव विचारो का रूप लिये उमड़ रहे थे मैने उन् शब्द को स्वरूप दिया
और आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ
आप सबके स्नेह के लिये सदा आभारी रहूँगी
जन्मदिन मेरा.......
सोचती हूँ आज
जन्मदिन मेरा ,कैसे मनाऊँ
बच्चो के जैसे इठलाऊँ,या
एक साल उम्र बढ़ने की जिम्मेदारी निभाऊँ
बीते वर्षो में क्या खोया क्या पाया
इसका हिसाब लगाऊँ
वर्तमान पर रखू नजर या
भविष्य को बेहतर बनाऊँ
अपनो ने दिया अपार स्नेह उस पर
इतराऊँ
या किसी की नाराजगी से दुःखी हो जाऊँ
अधूरी ख़्वाहिशों को देखू या
पुरे अरमानों की ख़ुशी मनाऊँ
सोचती हूँ इन सबसे
सोचती हूँ इन सबसे, परे हो जाऊँ
और करू शुक्रिया ईश्वर और माता पिता का
कर्म पथ पर अपने आगे बढ़ती जाऊँ
कर्म पथ पर अपने आगे बढ़ती जाऊँ।।
संगीता माहेश्वरी ©
होलिका दहन आज उठाती है सवाल! होलिका अपने दहन पर, कीजिए थोड़ा चिन्तन-मनन दहन पर। कितनी बुराइयों को समेट हर बार जल जाती, न जाने फिर ...